राजनीति के बाज़ार में विज्ञापन मोह के साथ नए प्रोडक्ट की लॉन्चींग
(व्यंग्य)
नगर भांचा की कलम से
नगर के ज़मीन पर 17 साल बाद विदेसी ब्रांड के प्रोडक्ट उत्तुंग का अचानक चार दिनया लांच , टिरकुजान द्वारा कर दिया गया है। जिससे नगर में विज्ञापन का तेल, कढ़ाई में खूब उबाल मार रहा है। यह नेक कार्य करने का सौभाग्य नगर के ही उनके बचपन के बाल सखा के माध्यम से अपने अखबारों में अपना उल्लू सीधा करके उसे जोरों से हवा देते हुए प्रारंभ कर दिया गया है। अब तक के उस बाल सखा के गरीब झोली धारक ने उत्तुंग से हजारों की विज्ञापन अपने गरीब झोली में भर लीया है। अचानक नगर के राजनीतिक बाजार में अवतरण हुवा उत्तुंग से विज्ञापन के बाजार में अन्य ब्रांड के प्रोडक्ट में अनबन सी हो गयी है। जिसे खेती और राजनीति करने वाले नगर के जानकर करगा कह रहे हैं । पर टिरकुजनाब करगा को ही खेत का असली फसल मान रहे हैं।
टिरकुजान भी जानते हैं की समाचार पत्रों में विज्ञापनों का जबरदस्त ,,,, विज्ञापन में भयंकर वाला सम्मोहन होता है। जो एक बार विज्ञापन के जाल में फँस पड़ता है, फिर वो तेल के कड़ाई में पकोड़े की तरह तला जाता है। उसकी जेब का सरेबाजार चीरहरण होता है। फिर भी वो मुस्कुराते हुए लुटता रहता है। विज्ञापन मीठी छुरी है। जो बड़े प्यार से अगले को खसोटती है।
टिरकुजान आज भले ही कुर्शी पर बैठ गया हो , पर हंसाने वाली और महत्वपूर्ण जानकारी की व्यंग्य बात है कि टिरकुजान के दल उनके वार्ड से आज तक फतेह नहीं कर पाई । वैसे टिरकुजान के दल में कई ऐसे पुराने खड्डडूस हैं जो नगर अध्यक्ष , ब्लाक अध्यक्ष , महामंत्री , महासचिव ,वी. प्रतिनिधि , कोषाध्यक्ष जैसे पद पर अपने दल में वर्तमान में पदाधिकारी हैं जो ,,,, अपने क्षेत्र से कई सौ से लेकर कई हजार तक के वोटों से चुनाव हार चुके हैं । जो आजकल नगर की सियासत को चलाने का जो झूठा दावा कर रहे हैं । इनका दल ही झूठ और फरेब का मुखोटा है , क्योंकि इनके दल में जो आजतक चुनाव नहीं हारी उसे दल के अहम पदों से दरकिनार करते हुए दूध से माछी की तरह फेंक दिया गया है। जो चुनाव हार चुके उनके सर पर दल की अहम पदों की जिम्मेदारी दे दिया गया है। शायद यही वजह भी है । जिसके चलते इनके दलों में आज जो गुटबाजी हो रही है। और हो भी न क्यों ? जो जीतकर आता है उसे मेडल दिया जाता है , न कि कटोरा पकड़ाया जाता है। और तो और दलों के बैनर पोस्टर में भी उनकी छवि हटा दी जाती है।
जनाब अब कोई भी हो …… नाराज तो होगा ही न !
माफ किजिये मैं अपने मुख्य व्यंग की धारा से फिर हट गया। अब क्या करूँ व्यंग्यकार हूँ ।…..
अच्छा मैं कहाँ था,,,,,,, मैं विज्ञापन की बात कर रहा था। ………
अब जनाब हमारी सोच ही ऐसी बन गयी है की, वही चीज महान है , जो उम्दा और भरोसे लायक है । जिसका विज्ञापन बाजार में चल रहा है। विज्ञापन विहीन वस्तुओं का इस राजनीतिक बाजारी युग में कोई अस्तित्व नहीं है। चाहे वो प्रोडक्ट देसी हो या विदेसी हो। जैसे आज ही हमारे नगर के विज्ञापनी बाजार में नगर के चौक चौक पर बड़े बड़े सियासी दल बेनर के विज्ञापन सजे पड़े हैं। नगर के चौराहों पे खड़ी लोहे और बांस के ढांचों में तरह-तरह के नीला , पिला , उल्लू, गुल्लू , उत्तुं , टीरकु …. वगैरहा – वगैरहा के विज्ञापन मछली की तरह तैर रहे हैं। नगर में तो विज्ञापन लोगों के जेब में है, हाथ में है, मोबाइल में है। नगर में मोबाइल बात करने का साधन कम अब हाईटेक मल्टीनेशनल कम्पनियों की तरह राजनीतिक टीरकूओं के चमचों के प्रचार करने का साधन ज्यादा बन चुका है। वो चीख-चीख कर किसी वस्तु की तरह अपना स्वार्थी चेहरा का प्रचार प्रसार कर रहा है। अब ये भी बात है न , जिसका प्रचार होता है , वही प्रचलन में रहता है। बाकी सब बाजार से गायब , ठीक उसी तरह जिस तरह दूध में से मख्खी । आज नगर में हर बंदा प्रचार में जुटा हुवा है। हर क्षेत्र में प्रचार का बड़ा खेल हो रहा है चाहे ज़मीन का हो, शिक्षा का हो , या राजनैतिक जन्मदिन दिवस का हो । जिनके विज्ञापन अखबारों और टी.बी चैनलों में भी धड़ल्ले से देखे जा सकते हैं। और यही हाल अब हमारे नगर में भी चल रहा है । अब तो नगर में नेता भी विज्ञापन से चमकाए जाते हैं। इसे नगर के कलमतोड़ वीरों ने साबित कर दिया है। जिसे ये नगर में रायता की तरह फैला रहे हैं । भले ये विज्ञापनी नेता चुनाव में टिकें या न टिक पाएं …, पर अखबारों और होर्डिंग्स में चेहरे पर विज्ञापनी मुस्कान टिकाये अब जरूर देखे जा सकते हैं।
चुनाव के समय सरकार विज्ञापन द्वारा ही दिखाती है कि उसने पाँच सालों में कितना विकास किया है। विकास भले ही धरातल पर ना दिखे पर वो विज्ञापनों में खूब फलता-फूलता हुवा दिखाई देता है।
विज्ञापन का सम्मोहन ही है कि रंग से सावले हो या काले लोगों का वर्षों से क्रीम लगाने के बाद भी क्रीम से विस्वास नहीँ टूटता। हर बार नई क्रीम का विज्ञापन उन्हें अपने जाल में फंसा डालता है। और वो पूरे आत्मविश्वास के साथ क्रीम की कृपा की प्रतीक्षा करने में लगे रहते हैं।
अगर कोई बंदा बाजार से कोई चीज खरीद के ले आता है, और घर आने पर जब पता चलता है कि इस चीज का तो विज्ञापन आता ही नहीँ तो पत्नी उसे डपटते हुए वापिस बाजार भेज देती है। डरा-सहमा पति सामान वापस करने चला जाता है। ये विज्ञापन का भौकाल है। आजकल बिना विज्ञापन वाली चीनी और चाय तक नहीँ खरीदी जाती। विज्ञापन से सने हुए अंडर गारमेंट्स ही पहने जाते हैं। तो नगर में बिना विज्ञापन के लॉन्च हुए प्रोडक्ट को हम अपना भाग्यविधाता कैसे मान लें। इसी लिए विज्ञापन जरूरी है। जो दिखता है वही बिकता है। और इस बाजार में अब देसी विदेसी प्रोडक्ट विज्ञापन के माध्यम से अपने उद्योग को बिना चापलूसी के बिक न जाने के डर से विज्ञापनी उल्लू सीधा किया जा रहा है।