नितिन भांडेकर का व्यंग्य: नगर के चुनावी टिकट के बाजार में व्यंग्यकार को भला कौन पूछता !
नगर में टिकट के लिए नेता जोरों से दमखम लगा रहे हैं। वहीं कोई संतुष्ट है तो किसी से परमसंतुष्ट हो रहे हैं। तो कहीं किसी की अचानक दावेदारी को लेकर असंतुष्ट हो रहे हैं। वाकई कका.. टिकट में बहुत दम है, सदा राखिए इन पर हाथ। बदल लीजिए पारटी, छोड़ दीजिए ईमान। असली वाली पिट रही है क्योंकि चुनावी टिकट तर्ज वाली फिल्म ‘पुष्पा झुकेगा नहीं’ बहुत हिट हो रही है। सबको विधानसभा का टिकट चाहिए। दादा को भी चाहिए, माता को भी चाहिए, और बेटे को भी।
वैसे इन सब को देख कर मुझे भी इच्छा हो गयी। ईमानदारी की बात तो यह है कि चाहता तो मैं भी था टिकट, मगर किसी ने दिया ही नहीं। छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़, डोंगरगांव , कवर्धा , खैरागढ़ जैसे कई जगहों पर मैंने अपार कोशिस की किंतु हाथ में कुछ न लगा। सब पार्टियों को ट्राय किया। सबने यही कहा कि ठेंगा चाहिए? वह चाहिए तो अभी और यहीं और बिल्कुल मुफ्त में दे देंगे। किसी ने हमें टके सेर तो क्या टके किलो में भी नहीं पूछा। मैंने बहुत कहा कि साहब मैं करीब दस सालों से व्यंग्य विधा के माध्यम से नगर की सेवा कर रहा हूं तो सबने कहा हुंह, आगे जाकर देखो कोई दूसरी पार्टी। एक भाईसाहब ने तो पूछा कि ये जी, हिंदी साहित्य क्या बला होती है? हमें तो यह भी नहीं मालूम कि हिंदी क्या होती है? खैर… इससे भी आगे बढ़कर एक ने तो हद ही कर दी! पूछता है कि ये साहित्य , व्यंग्य क्या होता है ? कुछ होता है क्या? हमारे विधानसभा क्षेत्र में तो ऐसी कोई कम्युनिटी नहीं होती! होती होगी तो वोट की दृष्टि से मैटर नहीं करती होगी। मैं तो सर ही पकड़ बैठा …. सोचा किसके आगे बिन बजा रहा हूँ। कका जाने कैसे कैसे बुद्धिमान भर भर के नेता रखे हैं?
एक से कहा तो पहले तो वह सुनकर खूब हंसा। इतना हंसा कि लगा कहीं आकाश फट न पड़े तो मैंने अपने सिर पर अपनी दोनों हथेलियां ही रख लीं, ताकि आसमान फटे तो सिर पर न फटे। फिर उसने कहा, अच्छा, साहित्य के माध्यम से भी सेवा की जाती है न? हमने तो पहली बार सुना भाईसाहब। आपने साहित्य की सेवा की होगी तो उससे जाकर ही क्यों नहीं मांग लेते हो टिकट, हमारे पास क्यों आए हो? एक ने तो यहाँ तक के कह दिया की अगर हम ये बताएंगे कि ये व्यंग्यकार सज्जन जी है , जो पिछले कई वर्षों से साहित्य- विधा के माध्यम से सेवा कर रहे हैं तो कोई भी मत दाता एक भी वोट नहीं देगा हमें? आगे कहता है मुझे….ईमानदारी से बताओ व्यंग्यकार जी ,तो क्या तुम्हारी बीवी और तुम , खुद ही को खुद को वोट दोगे?
सोचा इन छुटभैय्यों के चक्कर काटने से कुछ हासिल नहीं होना है। किसी पहुंच परख तीगड़म बाज वाले नेता के पास जाना चाहिए। मायूस होकर एक बड़े पहुंच वाले के पास पहुंचा। उसने कहा कि हां-हां मुझे मालूम है कि हिंदी साहित्य होता है। मैंने बचपन में खूब पढ़ा है। आप भी गुलजार , पंत जैसा वैसा कुछ लिखते हो क्या? तब तो आपके पास खूब पैसा होगा फिर, टिकट दे देंगे। आपके फीस में भी रियायत दे देंगे। दूसरों से एक करोड़ लेते हैं, आपकी साहित्य सेवा के रिकार्ड को देखते हुए पचास लाख में ही दे देंगे। लेकिन आपको पहले ही बता देते हैं, इससे मैं एक रुपया क्या दस पैसे भी कम नहीं करूँगा न लूंगा। यह सुनकर मेरा तो गला ही सुख गया। सोचने लगा मछली बाजार आ गया लगता है। ये सब सुनकर अवकाद नजर आ गयी अपनी । मैं वहां से सर झुकाए जाने लगा तो पीछे से कहा, चलो टेन परसेंट का स्पेशल डिस्काउंट दे देंगे – 45 लाख फाइनल प्राइस है। मेरा जाना जारी रहा तो कहा, चलो 20 परसेंट का रिबेट दे देंगे। साहित्य के नाम पर इतना बलिदान हम कर सकते हैं। मैं रुका नहीं तो कहा, अरे आप भी तो बताओ, कितना दोगे? दस लाख चलेगा? इससे सस्ता टिकट भाई साहब आपको कहीं नहीं मिलेगा। घूमना चाहो तो घूम के देख लो टिकट के बाजार में। 24 घंटे तक इस रेट पर हम आपको माल देंगे, बाद में खिड़की बंद मिलेगी और जिंदगी भर पछताओगे। जिताने की पूरी जिम्मेदारी हमारी रहेगी, नकदी खर्च करने की जवाबदारी आपकी रहेगी। अरे टिकट खरीदने का दम नहीं है तो मुहं उठाकर क्यों चले आये हो , टिकट लेने बाजार में लाइन लगी है 60 लोगों की, फोकटिये साले कहींं के। इन साहित्यवालों को तो सब कुछ मुफ्त मेंं ही चाहिए रहता है। मुफ्तखोर साले, हरामखोर। कई गालियां सुनने के बाद यह निश्चय किया कि मैं व्यंग्यकार ही ठीक हूँ।
(इस लेख में व्यक्त विचार प्रेरित है , वर्तमान परिदृश्य से किसी प्रकार का कोई लेना देना नहीं है। सिर्फ मनोरंजन हेतु)