◼️ठेकेदारी भी एक कला है :―
ठेकेदारी किसी धंधे का नहीं, एक अति विकसित कला का नाम है। इस कला में माहिर लोगों को ठेकेदार कहा जाता है।…
नितिन कुमार भांडेकर (9589050550)
ठेकेदारी किसी धंधे का नहीं, एक अति विकसित कला का नाम है। इस कला में माहिर लोगों को ठेकेदार कहा जाता है। ठेकेदारी को अति विकसित कला की श्रेणी में रखने का मेरा सारा अभिप्राय मात्र इतना-सा है कि जो भी कलाकार (मेरा मतलब ठेकेदार) एक बार ठेके के काम को निष्पादित करने-कराने का हुनर हथिया लेता है, उसके शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक, तीनों ही विकास, तीव्रतर गति में होते हुए देखे जाते हैं।
आज समाज का कौन-सा ऐसा क्षेत्र अछूता रह गया है, जिसमें ठेकेदारी के इस धंधे ने अपने पांव न पसार रखे हों! हर कारोबार इस ठेकेदारी के चौराहे से होकर ही गुजरता है।
खैर, मेरे एक करीबी मित्र के बाल सखा है। जो सरकारी ठेकेदार है। पुल, भवन , टूटे फूटे की मरम्मत, सड़क, बनाने का ठेका लिया करता हैं। सरकारी काम को सरकारी तरीके से करने में उसको महारत प्राप्त है। पिछले दिनों इस बाल सखा ठेकेदार ने एक पुल खड़ा किया। उनका खड़ा किया हुआ बैराज न जमीन पर था, न नदी पर। जहां पर होना चाहिए, वहीं पर था। वह तो भला हो उस रोज का, जिस रोज जनता को पता चल ही गया कि असली पुल तो विभागीय इंजीनियर और माननीय मंत्री महोदय के बीच निर्मित हुआ है। इंजीनियर-मंत्री के मध्य के इस पुख्ता पुल को बनाने में मेरे इन मित्र ठेकेदार ने अपनी सारी कला झोंक मारी थी। इस बैराज में जुगाड़ का सरिया , सीमेंट, और रिश्वत के गेट इतने गहरे थे कि घटिया निर्माण-कार्य की शिकायतों को लेकर बैठी जांच कमेटी अवाक-सी, खड़ी की खड़ी रह गई थी। यह जांच जब से बैठी, बैठी ही हो रही है। अलबत्ता, ठेकेदार की साख की उन्नति के पाये और मजबूती से खड़े हो गए। पर उक्त बैराज की नींव जरूर हिल गयी। ये तो बड़े बैनर के ठेकेदारों की बात थी जो मैं गुनगुना दिया ।
अपने यहां नगर में इस ठेकेदारी की साख कुछ ऐसी है कि लोग कहते हैं- भाई, ठेके का काम तो ठेके का ही होता है। मगर मेरा मानना है, अब ठेकेदारी को लेकर की गई इस तरह की जुमलेबाजियां अप्रासंगिक हो गई हैं। मैं आज के दौर के हनक संपन्न ठेकेदारों को देखता हूं, तो पाता हूं कि अब यह ठेके का काम वास्तव में ठोकने का काम हो गया है। अब जिस किसी ठेकेदार में अपने सामने वाले को ठोकने का जितनी अधिक जिगरा मिलता है, उसके कब्जे में उतने ही ज्यादा ठेके आते हैं। चाहे भवन लोक हो या जल लोक , नगर लोक हो , जिसका ठेका मिलते ही ठेकेदार तेजी से फूलता और फैलता है।
इधर ठेकेदारों ने अपने लिए एक खास किस्म का ड्रेस कोड तैयार कर रखा है। इस पहनावे की वजह से वे दूर से ही पहचान में आ जाते हैं। उनकी कलाई में मोटा कलावा और गले में चैन सुशोभित मिलता है। ठेकेदार प्राय: धवल वस्त्र धारण करते हैं। लकदक जीन्स पैंट और स्टार्चमयी सफेद टीशर्ट या शर्ट उनके हष्ट-पुष्ट खाए-पिए तन पर बरोबर चिपकी होती है। उनके मुंह में पान, गुटखा या महंगी सिगरेटें जरूर होती हैं। हाथ कार की स्टेयरिंग पर होता है। ये अपने स्वाभाविक जीवन में ऊंचे पाये की राजनीति तो बाद में करते हैं, आरंभिक दिनों में राजनीति में विशेष रुचि रखने की अनिवार्यता बराबर रखते हैं। रिश्ते में ये अपने क्षेत्र के छुटभइयों के बाप लगते हैं।
ये जहां पर भी खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीं से आरंभ होती है। ठेकेदार किसी राजनेता या मंत्री , विधायक , के रिश्तेदार भी होते हैं। यह वाली क्वॉलिटी न हुई, तो उनके खासुलखास चंपू तो जरूर होते ही हैं। इतना ही नहीं, ये किसी विधायक या अधिकारी के लंगोटिया यार , या तो रिश्तेदार होने का सौभाग्य भी रखते हैं और इस सखापने को बहु प्रचारित कराने में गौरवानुभूति करते हैं।
इस कोटि के ठेकेदारों को कहीं पर काम मांगने नहीं जाना पड़ता। ठेके खुद चलकर उनके हाथों में आ गिरते हैं। इनकी कम दर की निविदाएं अपने आप खुलने लग पड़ती हैं। यह ठेकेदारी की कला हर क्षेत्र में सीमेंट में बालू की तरह से आ घुसी है। अब तो साहित्य में भी ठेकेदारों की लठैती चालू है। पर मैं अपने इस ठेके के आलेख में इसकी विस्तृत चर्चा इसलिए नहीं कर रहा हूं कि इसको बांचकर कहीं ऊपर वर्णित ठेकेदार कांप्लेक्सग्रस्त न हो जाएं।