आज के चमचों की चमचई भरी , चापलूसी । अपनी सारी चरम सीमा पार , आख़िर कब तक।
एक समय था जब राजाओं के दरबार में चाटुकार और विदूषक हुवा करते थे। जो चाटुकारीता कर राजा के हर अच्छे-बुरे काम की प्रशंसा किया करते थे। यहाँ तक के राजा की प्रशंसा कर राजा का अति प्रिय बने रहने के लिए वो अन्य दरबारियों का खुले आम अपमान करने से भी नहीं चूकते थे। राजा भी ऐसे चमचई दरबारियों से अक्सर खुश रहा करते थे। भाँड़, राजा के दरबार में तरह-तरह के चमचई भरी लोमड़ी की तर्ज पर कलाबाजी के हुनर दिखा दिखा कर अपने स्वामी को खुश किया करते थे । यही भांडों , चापलूसों एवं चाटुकारों का बिगड़ा हुआ रूप ही फिलहाल वर्तमान के चमचई चमचों का स्वरूप है। खैर…. “चमचा मतलब ‘चरणामृत चाखू’ या ‘चरण मक्खन चाटू”। यूँ तो घर के रसोई में सभी प्रकार के चमचे होते हैं, जैसे छोटा चमचा, बड़ा चमचा , खाना परोसने का चमचा, खाने का चमचा, मीठा खाने का चमचा, चाय में चीनी मिलाने का चमचा आदि आदि… रसोई में इन चमचों की उपयोगिता एक गृहिणी ही बेहतर जान सकती है। इसी तरह समाज में भी तरह-तरह के चमचों से हम सबका सामना आये दिन होते रहता है। आपको बता दूं कि यहाँ चमचों के भी चमचे होते हैं। ये बात सौलह आने सच है जनाब, कि रसोई में चमचे जितने श्रेष्ठ हैं, आज भी समाज में ये चमचे उतने ही सर्वश्रेष्ठ पथभ्रष्ठ हैं। आज के चमचों की ख़ासियत ये है कि समाज में अपना बरतन ये स्वयं ढूँढ़ते हैं, और ये उस बरतन के लिए कितने उपयोगी हो सकते है, ये भी स्वयं ही बताते हैं। जैसे ही इन्हें अपनी पसंद का बरतन मिलता है ये उसकी पैंदी से जोंक की तरह चिपक जाते हैं। ये चमचे ऐसा बरतन ढूँढ़ते हैं जिसमें इनकी पाँचो उँगलियाँ घी में रहें और मुँह दुध मलाई में। चरण चुबंन में इनकी बहुत श्रद्धा होती है। चमचे आप को हर जगह मिलेंगे, दफ़्तर, व्यापार, सर कार हर जगह। समाज का कोई कोना इनसे बचा नही है। कोई चमचई करते मैडम से टेंडर ले रहा है। तो कोई साहब के गार्डन की बागबानी कर रहा है , यहां तक उनके बाथरूम का टॉयलेट तक का साफ करवा रहा है। कुछ नए नवेले साहब नेताओं को मंच से उतर कर उनके कार तक चमचई करते हुए अपने पद पर बने रहने के लिए उन्हें कार तक छोड़ने जा रहे हैं। तो कोई सुबह सुबह अपनी हाजिरी देकर साहब के बंगलों में उनकी शोर ख़बर लेने के बहाने उनके चरण चाटू कर रहे हैं। कोई इश्क़ फरमा रहा है अपनी चमचों वाली आदतों से , तो कोई अपनी गलतियों को छुपाने दूर बताकर नजदीक के फार्म हाउस में एक साथ टूर पर जा रहा है। बहरहाल आलम यही है कि बिस्तर पर रखे सिराने पर चाटुकार आजकल अपनी तशरीफ़ टिकाए हुए लगझरी सीट पर बैठने का आनन्द ले रहे हैं। जाहिर है आगे भी अपनी कुंडली जमाये रखने ऐसी चमचई कोई भी कर बैठता है। खैर… ‘संस्था हो या संस्थान, दफ़्तर ही इनका होता है प्रमुख स्थान, जहाँ से ये कभी नहीं करते प्रस्थान’ चमचे वो ‘कैक्टस’ हैं जो कहीं भी फल-फूल जाते हैं, जो किसी भी उम्र और पद का हो सकता है। ये अपने स्वार्थ साधने किसी भी हद तक जा सकते हैं। चाहे गुलाब का फूल हो या गेंदे का फूल इन्हें जो भी फूल अपने आसपास मिले उस फूलों की खुशबू लेने जरा भी नहीं कतराते । चाहे वह फूल किसी के भी बगीया की हो, इन्हें तो बस उन फूलों के रस को निचोड़ कर उन्हें रंग और गंधहीन बना देने का हुनर आता है। कर्म से इन्हें कोई मतलब नहीं होता। इनकी निगाह तो बस निशाना बींधने पर ही रहती हैं। उस फूल के माली की भी नियत दूसरे बगिया के फूलों की महक लेने में मस्त रहता है। चाहे काम कैसे भी होना है, किस तरह के होना है , इससे इन्हें कोई मतलब नहीं, बस काम होना चाहिए भले उसके लिए कोई भी हद तक जाना पड़े इनके लिए ये सब बहुत मामुली बात होती है। चमचों की विशेषताओं को तो वही जान सकता है हुजूर जिसको चमचों के बिना रातों को नींद भी नहीं आती। हम जैसे लोग तो बस इनकी बुराई ही करते रह जाते हैं, पर ये अपने समय और संबंधों का पुरा सदुपयोग कर अपना हर काम निकाल लेते हैं। नेता का हो या अभिनेता का, या हो अफ़सर का चहेता। मन में इसके ज़हर भरा, रंग काला हो या गोरा पर बातों से शहद टपकता। है ये बिन पेंदी का लोटा, कभी इधर लुढ़कता कभी उधर लुढ़कता। चमड़ी का इतना मोटा, इस पर किसी बात का नही असर होता। ये पहले भी थे, आज भी हैं, और आगे भी रहेंगे। रंग बदलते है, रुप बदलते हैं, बदलते रहेंगे इनके अख़्स। इनके कदरदान इन्हें हमेशा प्रश्रय देते रहेंगे। और ये ऐसे ही फलते फूलते रहेंगे। ये तो शायद इनका आरंभ है , समापन नहीं।